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Thursday, June 2, 2016

जाने क्यों मैं देता हूं शब्द अपनी भावनाओं को

मैं रोक देता हूं उस धार को
जो बहती है बेधड़क.. उन्मुक्त..

शब्द नहीं मिलते हर सोच को
फिर शब्द में डालने के लिए मैं सोच बदल देता हूं।

मैं मूर्त करना चाहता हूं अपने हर एहसास को
जो सांसों की तरह चलती रहती है
अनवरत.. बिना मेहनत के..

बांधने के क्रम मैं रुक जाती है वह धार
जो शायद विषाद की सीमा लांघ
खुशी की तरफ बढ़ जाती
और अपने ख्यालों में डूबा दुखी मैं
शायद खुश भी हो जाता!

लेकिन अब शब्दों के जाल में घिरे मेरे एहसास
दुख का प्रयाय बन के रह गए हैं..

जाने क्यों मैं देता हूं शब्द अपनी भावनाओं को!

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