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Thursday, May 26, 2011

अच्छा लगता है..

ये शाम न जाए, कभी रात ना हो
उदासी-अंद्धेरे की बरसात ना हो
हाँ ले चल मुझे कहीं साथ अपने 
जहाँ बंदिशों की कोई बात ना हो

वो रोना, वो गाना, सताना, मानना,
करें जब जो चाहें,जो दिल ने ठाना
बहें धार में हम अपने ही दिल के, मिले हमको वो जो अच्छा लगता है

 ना दुनिया है ज़ालिम ना लोग दीवाने
ना लब किसी के पुराने फ़साने
क्या आगे निकलने की होड़ बुरी है?
क्या रह जाएँ यहीं पे नया कुछ ना जानें?

वो बाते पुरानी निकलती नहीं है
मगर उन बातों की गलती नहीं है
इन बातो को सीने से लगा के, कहीं  डूब जाना ही सच्चा लगता है

कहाँ थी ख्यालों की चादर ये फैली
न सिलवट थे इसमें, न दिखती थी मैली
 हकीकत से ही तो था याराना अपना
न दूजे की खद्दर न दूजे की थैली

अब चलते-चलते निकल आये आगे,
जाने कब थे सोये और हम कब थे जागे,
क्या खोया क्या पाया की पर्ची भुलाके बस सो जाना ही अच्छा लगता है

सभी ने कहा कि कयामत भी होगी
कभी किसी रोज़ बग़ावत भी होगी,
निकल आयेंगे परिंदे घरो से,
सबपे खुदा कि इनायत ही होगी,

कि चाहे भी हम ये और सोचे भी हम ये,
न हो फिर भी ये हम कह दे सभी से,
बड़ी बाते छोड़ क्यों ना चुन ले लम्हा इन सब के आगे जो बच्चा लगता है.