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Friday, September 7, 2018

ग्लानि की रात

जो अब रात काली घना है अंधेरा,
कोई बता दे क्या होगा सवेरा?
कमल के पत्तों पर बूंदों का फिर से
तुम ही बताओ लगेगा बसेरा?

न पंखुड़ी खुलती न चिड़िया है गाती,
न खुशबू बदल के हवा कोई आती|
क्या चाहूं, क्या कर दूं, क्या सोचूं, क्या लिख दूं?
काली है स्याही दिल नापाक मेरा|

जो निकले कलम से दिखाता नहीं हूं
कि अब गीत कोई मैं गाता नहीं हूं
जो हैं पास मेरे खता क्या है उनकी?
ये कालिख भी  मेरी, ये अवसाद मेरा|

इस जग से नरमी की ख्वाहिश नहीं है
 ये दर्द भला है, ये आंसू सही है|
अगर कोई आए जो ले कर 'तसल्ली'
तुम ही हाथ बढ़ा दो न हो हाथ मेरा|

अभी जान बाकी है मेरे सितमगर,
तुझे आता वही है तू मुझ पर सितम कर,
 कि सांस मैं राहत की ले लूं जरा सी
 ना ऐसे कर्म है न तू ऐसा कुछ कर!