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Thursday, June 2, 2016

जाने क्यों मैं देता हूं शब्द अपनी भावनाओं को

मैं रोक देता हूं उस धार को
जो बहती है बेधड़क.. उन्मुक्त..

शब्द नहीं मिलते हर सोच को
फिर शब्द में डालने के लिए मैं सोच बदल देता हूं।

मैं मूर्त करना चाहता हूं अपने हर एहसास को
जो सांसों की तरह चलती रहती है
अनवरत.. बिना मेहनत के..

बांधने के क्रम मैं रुक जाती है वह धार
जो शायद विषाद की सीमा लांघ
खुशी की तरफ बढ़ जाती
और अपने ख्यालों में डूबा दुखी मैं
शायद खुश भी हो जाता!

लेकिन अब शब्दों के जाल में घिरे मेरे एहसास
दुख का प्रयाय बन के रह गए हैं..

जाने क्यों मैं देता हूं शब्द अपनी भावनाओं को!

Thursday, May 26, 2016

अकवन और मैं..

आज चलते-चलते मुझे दिखी अकवन की झाड़ियाँ
याद आ गए वो बचपन के दिन
जब उसके उड़ते बीजों को पकड़ने के लिए
हम दौड़ा करते थे
वह पाको मामा - पाको मामा कहकर
उसके पीछे भागा करते थे
इन झाड़ों में पाको मामा नहीं थे
इसके बीज नहीं थे
इसके फल नहीं थे
शायद ये इनका घर नही था!
फिर याद आया..घर तो ये मेरा भी नही है!
और यह दिन जो हैं वह बचपन के नहीं हैं..


Tuesday, February 2, 2016

ग़म

आँखों में आंसू आते हैं लेकिन,
    आंसुओ को आँख क्यों नहीं?
        अरमानो से जुड़े थे जज़्बात,
            अरमानो को जज़्बात क्यों नहीं?
चाहा जहाँ बसाना अपना बसेरा
     ज़मीन मयस्सर नहीं हुई.
          सिमटना कहाँ चाहा अपने दायरों में,
                गम यही की कोई अपने साथ नहीं.

ये भीड़ नही रुकती

कुछ भी हो जाए ये भीड़ नही रुकती

वो उठ नहीं सका
मैं देख रहा था
कोई तो रुकेगा
हाथ आगे बढ़ा कर
कोई तो सहारा देगा
उसे उठाएगा, आँसू पोछेगा|

रुकने वाला था बड़ा सादा सा!
उसने किया वो सब
जो एक इंसान करता, दूजे के लिए|

मैं देख रहा था
भीड़ आगे सरक गयी

ठहरे हुए थे बस तीन-
जो गिरा,
जिसने सहारा दिया
और देखने वाला मैं.