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Tuesday, January 11, 2011

माँ

कर कानो को फिर झंकृत, ये सुन्न पड़े से जाते हैं,
फैला दे अपना तू आँचल, अब आँख भरे ही आते हैं.
कभी सहर सांझ तू साथ रही, न रात कभी आ पाई थी,
अब रात कि चादर बिखरी है, न छोर पकड़ में आते हैं.

बस काश है फैला चहु ओर,साहिल का कोई अंदाज़ नहीं,
चल रहा स्वयं संग लेकिन क्या, है मंजिल का है आगाज़ सही?
अनुगूंज भी अब न कोई है जो मंजिल की दे पहचान मुझे,
मेरा हाथ थम ले फिरसे तू, ये कदम बहकते जाते हैं.

कहाँ को निकला किधर चला, किस राह की मंजिल मेरी है?
कुछ ज्ञात नहीं अज्ञात सभी, कहाँ वो ऊँगली तेरी है?
कहकहों की इस दुनिया से तू, ले चल मुझको पार कहीं,
ये गगन भेदने वाले स्वर, अब प्राण खींचते जाते हैं.

मैं पड़ा यहीं रह जाऊंगा, फिरसे चलना सिखला दे तू,
उषा-किरण दिखला मुझको, भर दे साँसों में फिर खुशबू.
कर प्राणों को फिर चेतन, सुन मेरी उच्छवासों को,
जाने कबसे तेरे लिए, माँ-माँ चीखते जाते हैं.

2 comments:

  1. अदभुत...शब्द नही हैं कुछ भी कहने के लिए...बस ये समझ लो की अभी भी इन्ही एहसासों में लहरा रहा हूँ

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