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Monday, January 10, 2011

क्यों हार न मानूँ?

क्यों हार न मानूँ?

हाथों के आगे अँधेरा
है खाई पीछे पग मेरा
पग बोझिल होते अब मेरे.

होठों पे अत्रिप्य प्यास 
आखों में अदृश्य आस
निज झिलमिल होते सब मेरे
आधार कहाँ कि जिससे अपना पथ पहचानूँ?

क्यों हार न मानूँ?

1 comment:

  1. है रहा कौन तृप्त इस जगत में,खुद अपनी किसको है पहचान यहाँ
    अंधियारे के आगे ताको पथिक, झीना सा होगा एक द्वार वहाँ....

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