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Wednesday, December 14, 2011

तितलियाँ भी बेरंग होने लगी हैं..

ना कोशिश की पाने की तूने जो चाहा,
ना धार लहू की बहाई पथ पे,
लाश के भांति जो पहुचे थे अन्दर,
क्या चाहा था तूने कि ये हो अथ में?

हमेशा जो होता वो होगा तेरा भी,
बाते ये तुझको डुबोने लगी हैं..

कागज़ थे कोरे जो तुने थे पाए,
जीवन के रंगों को तूने बिखेरा
जाती जहाँ तक ये आखें समझ की,
बस अवसाद काली, निशा या सवेरा,

कौन सी धरती थी चुन ली तुमने,
फसलें ही जिसमे खोने लगी हैं..

कुछ पल तो ग़म के होते हैं निहित,
बस उनको पिरोना ही क्या होता मकसद?
क्या प्रीती लगी उनसे ऐ दोस्त तेरी
कि हार में कांटे ही पिरोये हैं अब तक?

समाहित हैं तुझमे वो सारे पल भी
जो इन कांटो की झाड़ में खोने लगे हैं..

कितने ही फूल थे गुज़रे इस पथ से,
कहाँ थे भला तुम जो गंधी न आई?
परिंदा भी कोई न गाना चाहे
भला कौन सी ऐसी युक्ति लगायी?

बेजान बगिया ये सुनसान राहें
ख़ुशी भी यहाँ आके रोने लगी है..
कि तितलियाँ भी बेरंग होने लगी हैं..

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